श्रीमद् भगवद्गीता में कर्मयोग
बस युद्ध इसी की बाबत था,जग को प्रमाण इक देना था l
जो सहज धर्म सम्मत मिलता, उसको बल से ले लेना था I
भगवान कृष्ण के सम्मुख, अब थी समस्या यह भारी l
अर्जुन को कैसे समझाएं, जो कार्य करे वो हितकारी I
मन का मोह जाल हरना था, साहस अर्जुन में भरना था l
तज शस्त्र दुखी जो बैठा था, उत्साहित फिर से करना था I
श्रीमद् भगवद गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है । जिसमें वह अर्जुन को उपदेश देते हैं , लगभग 5000 वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध में कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में जबकि सामने कौरवों की विशाल सेना खड़ी हुई थी। जिसमें अन्य संबंधियों के साथ पितामह भीष्म एवम गुरू द्रोणाचार्य भी थे , को देखकर वह विषाद ग्रस्त हो गया था और युद्ध करने में अपने आप को असमर्थ महसूस कर रहा था। विषाद ग्रस्त अर्जुन को देखकर श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश अर्जुन को दिया l जिससे अर्जुन अन्याय पर न्याय की विजय प्राप्ति के लिए युद्ध करने हेतु प्रेरित हो सके। श्रीमद् भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व का अंग है I इसमें कुल 18अध्याय हैं एवम 700 श्लोक हैं। 18 अध्याय क्रमशः कर्मयोग , ज्ञान योग एवम भक्ति योग में विभाजित हैं l इसमे से 2 से 5 अध्याय तक कर्म योग का वर्णन किया गया है I
गीता में कर्म के तीन प्रकार बताए गए हैं । कर्म ,अकर्म और विकर्म। आसक्त भाव से किए गए कर्म 'कर्म' कहलाते हैंl अनासक्त भाव से किए गए कर्म 'अकर्म' कहलाते हैं तथा ऐसे कर्म जो करने योग्य नहीं है को 'विकर्म' कहा गया हैl कर्म योग में कर्म शब्द संस्कृत की 'कृ' धातु से बना है । जब कर्म करने में कर्मेंद्रिय के साथ ज्ञानेंद्रिय भी सम्मिलित होती है तो यह कर्म योग कहलाता है l दैनिक जीवन में जो कार्य किए जाते हैं वह अकर्म की श्रेणी में आते हैंl अकर्म को निष्काम भाव से किए गए कर्म भी कहा जाता है अर्थात कर्तापन का भाव छोड़कर किया जाने वाला कर्म कर्मयोग की श्रेणी में आएगा l मोक्ष की प्राप्ति के लिए निष्काम कर्म योग जरूरी है l महापुरुषों का अनुसरण करते हुए जो कार्य किए जाते हैं, वह भी अकर्म ही कहलाते हैं l संसार में लोकेष्णl, पुत्रेष्णl , वित्तेष्णl से रहित होकर जो कर्म किया जाता है, वह कर्म कर्मयोग के अंतर्गत ही आता है l
श्रीमद् भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का 47वा श्लोक इस प्रकार है
मूल श्लोक
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन l
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
तेरा कर्म में ही अधिकार है ज्ञाननिष्ठामें नहीं। वहाँ ( कर्ममार्ग में ) कर्म करते हुए तेरा फलमें कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफलकी इच्छा नहीं होनी चाहिये। यदि कर्मफलमें तेरी तृष्णा होगी तो तू कर्मफल प्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफल प्राप्ति का कारण तू मत बन। क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना से प्रेरित होकर कर्म में प्रवृत्त होता है , तब वह कर्मफल रूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है। यदि कर्मफल की इच्छा न करें तो दुःखरूप कर्म करने की क्या आवश्यकता है l इस प्रकार कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिये।
रामसुख दास जी के अनुसार इस श्लोक अर्थ है - कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन। कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हो।
फल की इच्छा करने से व्यक्ति दूसरों से तुलना का अभ्यास शुरू कर देता है कोई व्यक्ति अगर केवल कर्म के फल का ही चिन्तन करता रहे तो, उसे बार बार में कहां तक पंहुचा ये जानने में रूचि रहती है। वह दुसरे व्यक्ति के साथ अपनी तुलना करता रहेगा, अगर दुसरे व्यक्ति को इतने प्रयास से सफलता मिल गई हो, तो वह तुरंत ही ऐसा सोचने लगेगा की, मुझे अभी तक क्यों परिणाम प्राप्त नहीं हुआ ? वह बस एक और बैठ जाता है। अर्थात कर्म करना ही छोड़ देता है। क्योकि उसे ऐसा लगने लगता है की मुझे सफलता मिलने वाली ही नही है। इसके स्थान पर यदि वह मात्र मन लगाकर केवल कर्म ही करता रहे तो वह एक दिन अवश्य सफल होगा।
फल की इच्छा व्यक्ति को कभी कभी गलत मार्ग की और ले जाती है
फल की इच्छा हमे संकुचित बनाती है। जल्द से परिणाम मिल जाने की अभिलाषा गलत मार्ग पर ले जाती है। इससे व्यक्ति अपने लक्ष्य से भटक जाता है एवम एकाग्र चित्त नहीं रह पाता है।
फल की आसक्ति व्यक्ति को निराशा की ओर ले जाती है
कर्मफल प्राप्ति की सोच ही उसे तुरन्त निराश कर देती है, वह बस एक और बैठ जाता है। अर्थात कर्म करना ही छोड़ देता है। क्योकि उसे ऐसा लगने लगता है की मुझे सफलता मिलने वाली ही नही हे,ऐसी सोच ही उसे तुरत निराश कर देती है। इसके बजाय अगर केवल कर्म ही करता रहे तो वह एक दिन अवश्य सफल होगा ।
श्रीमद् भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का 48 वा श्लोक गीता के कर्म योग को और आगे स्पष्ट करता है।
मूल श्लोक
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय न्यूजI
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
हे धनंजय! आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है। तू यदि एक वस्तु या व्यक्ति में रत होगा तो दुसरी वस्तु या व्यक्ति में द्वेष होना स्वाभाविक है। राग द्वेष के रहते हुए सिद्धि और असिद्धि में समता का भाव आना असंभव है।
रामसुख दास जी के अनुसार इस श्लोक का अर्थ है है धनंजय! तू आसक्ति का त्याग करके सिद्धि असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्म को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता।
राग द्वेष के नही रहने पर जो समता आती है, उस समता में स्थित रहकर कर्तव्य कर्मो को करना चाहिए। समता के भाव को ही योग कहा जाता है। इस समता रुपी योग में स्थित साधक कभी पथ भ्रष्ट नहीं होता है। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण हम सभी को जीवन में समत्व का भाव लाकर कैसे अपने कर्त्तव्य पथ का पालन करना है समझा रहे है।
गीता प्रवृति प्रधान ग्रंथ है I यों तो इसमें निवृति का भी वर्णन किया गया है I गीता का प्रवृत्ति प्रधान होने का एक पुष्ट प्रमाण है उसकी यह परम्परा जो भगवान ने बताई है I केशव गीता में कहते हैं अविनाशी मुझ परमात्मा ने यह योग का ज्ञान सर्वप्रथम सूर्य को दिया था I सूर्य ने यह ज्ञान मनु को दिया था और मनु ने इश्वाकु को l इस प्रकार परम्परा द्वारा आए इस ज्ञान को धारण करते हुए ऋषियों, राजाओं आदि ने कर्म योग के मार्ग पर अग्रसर होते हुए जीवन व्यतीत किया है। ब्रह्मऋषि निवृति प्रधान पथ पर चले है। वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि आदि ब्रह्मऋषि निवृति प्रधान पथ पर चले हैं। जबकि राजर्षी प्रवृत्ति प्रधान मार्ग पर चले है।
उपरोक्त दोनों श्लोक व्यक्ति को जीवन में कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने तथा एकाग्र चित्त होकर कर्म करने का संदेश देते हैं । कर्म करते समय उद्देश्य निर्धारण अवश्य कर सकते है किन्तु किए गए कर्म का अंतिम परिणाम क्या होगा यह चिंतन न करके सब ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए यह सन्देश देते हैं। अर्थात ईश्वर विश्वास व्यक्ति को जीवन पथ पर चलने में प्रति क्षण सहायता करता है।
Comments
Post a Comment